Friday, October 3, 2008

दिल्ली एक मेरी भी

गाँव में उस दिन
ख़ामोश थे अलाव
पूरी रात गुड़गुड़ाए थे हुक्के
और ग्राम देवता हुए थे दुखी
गाँव भर ने पिता से कहा था:-
बड़े लोग रहते हैं दिल्ली में
सुना है,
हमारे पहाड़ से भी बड़े
क़ुतुबमीनार के बराबर ऊँचे।
जिनके घर लालक़िले-से
बातें एकद सफ़ेद्।
दिल्ली मत जाना
मूर्ख बनने में ही
सारी उम्र लगा दोगे वहाँ

पिता नहीं माने
गए दिल्ली
बनाया घर।
अच्छी-ख़ासी मिट्टी
उनकी
हो गई ख़राब

लौट कर आए पिता
उखड़ी हुई साँसें उनकी
बर्फ़ की तरह गिर रही थी आवाज़
भाई से कहा उन्होंने:-
कहीं जाना
कहीं रहना
दिल्ली मत जाना

दिल्ली में एक शतरंज बिछा है
जहाँ आदमी सिर्फ़ प्यादा हो कर रह जाता है
वज़ीर और बादशाह
घोड़े, हाथी और ऊँट
उसे अपने लिए इस्तेमाल करते हैं
सो तुम मत जाना दिल्ली
बहुत लोग गए
नहीं लौटे
वहीं काम आए।

भाई नहीं माने
गए दिल्ली
लड़े, भीड़ में बनाने अपनी जगह
खाए धक्के
लौट आए बेहद थके
गुस्से की खाली बन्दूक के
थके हुए घोड़े पर
रखी हुई बेजान उंगली भर थे वे।

भाई ने मुझसे कहा:-
तुम दिल्ली मत जाना
न हमारा गाँव है वहाँ
न कोई छाँव
हवा-पानी कुछ भी नहीं
अपना आसमान तक नहीं

कोई नहीं सुनता दिल्ली में
संसद की तरह हैं वहाँ के लोग
ख़बरों का कारखाना है दिल्ली
आदमी वहाँ महज़ एक ख़बर है
या आँकड़ा

बहुत हुआ तो
किसी साबुन के प्रचार में नहाती
मुस्कुराती-गुनगुनाती
बेहद शर्मीली है बेशर्म दिल्ली
सिखाती हत्या करने की
ख़ूबसूरत कला

मैं मानता रहा कुछ दिन
भाई की बात।
मुझे जाना पड़ा दिल्ली।

मैंने पाया-
दिल्ली में
हर आदमी की
अपनी एक दिल्ली है।
एक मेरी भी।

मेरी दिल्ली संगीत से भरी
कविता में डूबी
नाटक में जीती
और दिल की तरह धड़कती

कोई कुछ भी कहे
दिल्ली स्वप्न नगरी तो है।
मैं हो जाता हूँ यहाँ
हवा में फ़ड़फ़ड़ाता आसमान
किसी के कपड़े पर छपा
खिला छोटा सा फूल
या सुन कर जिसे
हँस जाए
उदास मित्र
ऐसी कोई बात्।

सोचता हूँ
जब लौटूंगा कभी
थककर, हारकर, जीतकर
तो क्या कहूंगा
अपने बच्चों से?

मैं कहूंगा-
तुम जाना बादल की तरह
या चुपचाप बैठना
खाली किसी मेज़ पर
बसंत की तरह
यानि
ऐसे पहुँचना
जैसे पहुँचती है
अच्छी अचानक ख़बर
देखना दिल्ली भी
कितना प्यार करेगी तुमको!

दिल्ली में तुम्हारे लिये भी
एक दिल्ली होगी
ठीक मेरी जैसी!!

सो तुम
दिल्ली ज़रूर जाना

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