Thursday, February 12, 2009

प्रेम (४)

फूलों के रंग
हवा में उड़ रहे हैं
टहल रही है
भीगी घास पर
नंगे पाँव ख़ुश्बू।

आओ!
स्वागत है, पर
चुपचाप।

शब्दों का घर है मेरा
और एक नटखट बच्ची
अभी-अभी सोई है
नींद के पेड़ के नीचे!

प्रेम (३)

नींद चली गई है
खिड़की के रास्ते
कहीं;
ढूंढने चली गई हैं ऑंखें
नींद कों

और मैं
प्रतीक्षा कर रहा हूँ;
दोनों की!

प्रेम (२)

तुम्हारी चुप्पी
सुर्ख़ फूल सी
लगी-
खूब हरी टहनी पर।

हँसते हुए बोलना
जैसे-
तितलियों का
मेरे भीतर
पर खोलना।

मैं देख रहा हूँ
तुम्हारा
इतना अपने पास होना!

प्रेम (१)

बेहद उदास थीं तुम
मेरी उदासी को लेकर
मैं था उदास
तुम्हारी इस उदासी पर।

और यों;
हम दोनों ही
ख़ुश थे!

अच्छा ही हुआ

प्रेम एक दलदल है
अच्छा हुआ
मैं बच गया।

देखा है मैंने
प्रेमियों को
टूटकर रोते।
देखा है उन्हें चेहरा छिपाते।
प्यार के लिए करुणा जगाने के
नए-नए अभिनय करते
धोखा देने और विश्वास जमाने के
नायाब तरीक़े अपनाते।

छोटी-छोटी बातों पर
लड़ते हैं प्रेमी।
दुखी होते हैं
बेचैन अपनी-अपनी हालत पर।

शुरू होती है उनकी यात्रा
एक-दूसरे के सुख-दुख के बीच
आने-जाने से।
ख़त्म हो जाती
सब कुछ एक साथ
न पाने से!

अच्छा ही हुआ
मैं न कर सका किसी को प्यार।
पता नहीं मेरे कारण
मेरी प्रेमिका को
कितना और कहाँ
झूठ बोलना पड़ता।
छिपानी होतीं अपनी ख़ुशियाँ
उदासी
अपने ऑंसू
घबराहट...
चुरानी पड़ती नज़रें।

चक्कर काटती वह ज्योतिषियों के
कहाँ-कहाँ फैलाती हाथ
मांगती मन्नतें।
कहाँ-कहाँ भटकती
मेरे लिए
अच्छे-से-अच्छा
उपहार ढूंढने।

मुझे भी भटकना पड़ता
नए से नया प्रिंट ढूंढते हुए
कपड़ों के मेले में।

उपस्थित रहते हुए भी
हम दोनों
नहीं होते-
अपने दफ्तर में
अपनी-अपनी कुर्सी पर
जबकि रखे रहते मेज़ पर टिफ़िन।
कष्ट पाती उसकी अन्तरात्मा
अपने सरल माता-पिता के
विश्वास को धोखा देते हुए

कष्ट पाता मैं
उसे उसके सीधे-सुखी
रास्ते से भटका कर।

बर्बाद हो जाती
कितनों की
कितनी ज़िन्दगी।

यों सब कुछ अच्छा ही हुआ
सीधा-सादा चलता रहा मैं।

बस यही बुरा हुआ
मैं आदमी नहीं बन पाया
बिना प्यार के;-
यों ही
मारा गया!

Friday, October 3, 2008

दिल्ली एक मेरी भी

गाँव में उस दिन
ख़ामोश थे अलाव
पूरी रात गुड़गुड़ाए थे हुक्के
और ग्राम देवता हुए थे दुखी
गाँव भर ने पिता से कहा था:-
बड़े लोग रहते हैं दिल्ली में
सुना है,
हमारे पहाड़ से भी बड़े
क़ुतुबमीनार के बराबर ऊँचे।
जिनके घर लालक़िले-से
बातें एकद सफ़ेद्।
दिल्ली मत जाना
मूर्ख बनने में ही
सारी उम्र लगा दोगे वहाँ

पिता नहीं माने
गए दिल्ली
बनाया घर।
अच्छी-ख़ासी मिट्टी
उनकी
हो गई ख़राब

लौट कर आए पिता
उखड़ी हुई साँसें उनकी
बर्फ़ की तरह गिर रही थी आवाज़
भाई से कहा उन्होंने:-
कहीं जाना
कहीं रहना
दिल्ली मत जाना

दिल्ली में एक शतरंज बिछा है
जहाँ आदमी सिर्फ़ प्यादा हो कर रह जाता है
वज़ीर और बादशाह
घोड़े, हाथी और ऊँट
उसे अपने लिए इस्तेमाल करते हैं
सो तुम मत जाना दिल्ली
बहुत लोग गए
नहीं लौटे
वहीं काम आए।

भाई नहीं माने
गए दिल्ली
लड़े, भीड़ में बनाने अपनी जगह
खाए धक्के
लौट आए बेहद थके
गुस्से की खाली बन्दूक के
थके हुए घोड़े पर
रखी हुई बेजान उंगली भर थे वे।

भाई ने मुझसे कहा:-
तुम दिल्ली मत जाना
न हमारा गाँव है वहाँ
न कोई छाँव
हवा-पानी कुछ भी नहीं
अपना आसमान तक नहीं

कोई नहीं सुनता दिल्ली में
संसद की तरह हैं वहाँ के लोग
ख़बरों का कारखाना है दिल्ली
आदमी वहाँ महज़ एक ख़बर है
या आँकड़ा

बहुत हुआ तो
किसी साबुन के प्रचार में नहाती
मुस्कुराती-गुनगुनाती
बेहद शर्मीली है बेशर्म दिल्ली
सिखाती हत्या करने की
ख़ूबसूरत कला

मैं मानता रहा कुछ दिन
भाई की बात।
मुझे जाना पड़ा दिल्ली।

मैंने पाया-
दिल्ली में
हर आदमी की
अपनी एक दिल्ली है।
एक मेरी भी।

मेरी दिल्ली संगीत से भरी
कविता में डूबी
नाटक में जीती
और दिल की तरह धड़कती

कोई कुछ भी कहे
दिल्ली स्वप्न नगरी तो है।
मैं हो जाता हूँ यहाँ
हवा में फ़ड़फ़ड़ाता आसमान
किसी के कपड़े पर छपा
खिला छोटा सा फूल
या सुन कर जिसे
हँस जाए
उदास मित्र
ऐसी कोई बात्।

सोचता हूँ
जब लौटूंगा कभी
थककर, हारकर, जीतकर
तो क्या कहूंगा
अपने बच्चों से?

मैं कहूंगा-
तुम जाना बादल की तरह
या चुपचाप बैठना
खाली किसी मेज़ पर
बसंत की तरह
यानि
ऐसे पहुँचना
जैसे पहुँचती है
अच्छी अचानक ख़बर
देखना दिल्ली भी
कितना प्यार करेगी तुमको!

दिल्ली में तुम्हारे लिये भी
एक दिल्ली होगी
ठीक मेरी जैसी!!

सो तुम
दिल्ली ज़रूर जाना

Sunday, September 14, 2008

नमस्कार जी

हिन्दी चिट्ठा जगत के सभी मित्रों को प्रोफेसर हरिमोहन का नमस्कार
आप सभी पत्रकारिता जगत, हिन्दी साहित्य और हिन्दी शिक्षण से सम्बद्ध मुद्दों पर मुझसे चर्चा कर सकते हैं।
आपकी प्रतिक्रियाएं और प्रश्न अपेक्षित हैं।
मेरा ई-मेल- profharimohan@gmail.com