Thursday, February 12, 2009

अच्छा ही हुआ

प्रेम एक दलदल है
अच्छा हुआ
मैं बच गया।

देखा है मैंने
प्रेमियों को
टूटकर रोते।
देखा है उन्हें चेहरा छिपाते।
प्यार के लिए करुणा जगाने के
नए-नए अभिनय करते
धोखा देने और विश्वास जमाने के
नायाब तरीक़े अपनाते।

छोटी-छोटी बातों पर
लड़ते हैं प्रेमी।
दुखी होते हैं
बेचैन अपनी-अपनी हालत पर।

शुरू होती है उनकी यात्रा
एक-दूसरे के सुख-दुख के बीच
आने-जाने से।
ख़त्म हो जाती
सब कुछ एक साथ
न पाने से!

अच्छा ही हुआ
मैं न कर सका किसी को प्यार।
पता नहीं मेरे कारण
मेरी प्रेमिका को
कितना और कहाँ
झूठ बोलना पड़ता।
छिपानी होतीं अपनी ख़ुशियाँ
उदासी
अपने ऑंसू
घबराहट...
चुरानी पड़ती नज़रें।

चक्कर काटती वह ज्योतिषियों के
कहाँ-कहाँ फैलाती हाथ
मांगती मन्नतें।
कहाँ-कहाँ भटकती
मेरे लिए
अच्छे-से-अच्छा
उपहार ढूंढने।

मुझे भी भटकना पड़ता
नए से नया प्रिंट ढूंढते हुए
कपड़ों के मेले में।

उपस्थित रहते हुए भी
हम दोनों
नहीं होते-
अपने दफ्तर में
अपनी-अपनी कुर्सी पर
जबकि रखे रहते मेज़ पर टिफ़िन।
कष्ट पाती उसकी अन्तरात्मा
अपने सरल माता-पिता के
विश्वास को धोखा देते हुए

कष्ट पाता मैं
उसे उसके सीधे-सुखी
रास्ते से भटका कर।

बर्बाद हो जाती
कितनों की
कितनी ज़िन्दगी।

यों सब कुछ अच्छा ही हुआ
सीधा-सादा चलता रहा मैं।

बस यही बुरा हुआ
मैं आदमी नहीं बन पाया
बिना प्यार के;-
यों ही
मारा गया!

No comments: