Thursday, February 12, 2009

प्रेम (२)

तुम्हारी चुप्पी
सुर्ख़ फूल सी
लगी-
खूब हरी टहनी पर।

हँसते हुए बोलना
जैसे-
तितलियों का
मेरे भीतर
पर खोलना।

मैं देख रहा हूँ
तुम्हारा
इतना अपने पास होना!

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