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प्रो. हरिमोहन शर्मा की कविताएँ
Thursday, February 12, 2009
प्रेम (२)
तुम्हारी चुप्पी
सुर्ख़ फूल सी
लगी-
खूब हरी टहनी पर।
हँसते हुए बोलना
जैसे-
तितलियों का
मेरे भीतर
पर खोलना।
मैं देख रहा हूँ
तुम्हारा
इतना अपने पास होना!
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