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प्रो. हरिमोहन शर्मा की कविताएँ
Thursday, February 12, 2009
प्रेम (३)
नींद चली गई है
खिड़की के रास्ते
कहीं;
ढूंढने चली गई हैं ऑंखें
नींद कों
और मैं
प्रतीक्षा कर रहा हूँ;
दोनों की!
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